Monday, December 31, 2007

जब केबल टी.वी ने भी रेडियो की दुनिया में घुस-पैठ कर डाली...

....लगभग 1985-86 के आस-पास तक तो हम लोग रेडियो के साथ साथ दूरदर्शन टीवी का आनंद लूटने में लगे हुए थे। दूरदर्शन के प्रोग्राम दिन में कुछ घंटों तक ही प्रसारित हुया करते थे -- बाकी समय तो अपना रेडियो के मनोरंजक प्रोग्रामों के नाम ही लगा होता था। अब तक मैंने भी 3-4 छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर इक्टठे कर रखे थे। एक हास्पीटल में फुर्सत के लम्हों में सुनने के लिए रखा हुया था, एक घर के लिए ....मुझे, दोस्तो, अभी ध्यान आ रहा है कि यह वह समय था जब मैं नहाते हुए भी एक ट्रांजिस्टर गुसलखाने( जी हां, तब गुसलखाने ही हुया करते थे, ये बाथ-रूम तो अब हम ने बनाने शुरू किए हैं...) की शैल्फ पर रखना न भूलता था- आखिर उस दौरान भी मैं अपने चहेते विविध भारती की फिल्मी गीतों की बौछार से कैसे दूर रह सकता था !! उन दिनों यह भी बात होने लगीं कि अब वीसीपी या वीसीआर खरीदने या किराये पर लाने का भी कोई झंझट नहीं, अब तो भई केबल आ गया है, सारा दिन हिंदी फिल्मी व हिंदी फिल्मी गीतों पर आधारित कार्यक्रम छकाया करेगा --और वह भी सिर्फ 120रूपये महीने की दर से। खैर, हम लोगों को कभी यह केबल -वेबल लगवाने की बात जंची नहीं--बस यूं ही---शायद इस का कारण होगा कि हम लोग रेडियो एवं दूरदर्शन के कार्यक्रमों में बुरी तरह से ( या कहूं, अच्छी तरह से) डूबे रहते थे। तो दोस्तो, मैं कहना यह चाह रहा हूं कि इस केबल टीवी के आने से भी रेडियो की प्यारी सी दुनिया में कोई खास असर नहीं पड़ा। लोग, वही हिंदी फिल्में बार-बार देख कर ऊबने से लगे थे----वही गीत सुन सुन कर सिर फटा करता था।
दोस्तो, 1991 में मेरी सर्विस दिल्ली के सरकारी हस्पताल में लग गई। अभी कुछ दिन ही इस नौकरी को लगे हुए थे--- मुझे अभी पहली तनख्वाह भी न मिली थी। दोस्तो, मैं और मेरे बीवी चांदनी चौंक एरिया में टहल रहे थे- उस दिन मेरा जन्म-दिन था, बीवी ने पूछा कि बर्थ-डे प्रेसेंट क्या लोगे ?----मेरा कुछ खास जवाब न आने पर उस ने कहा कि आप को रेडियो सुनने का इतना शौक है, चलो एक रेडियो ही ले लेते हैं। सो, दोस्तो, मैं और मेरी पत्नी उस दिन सामने ही एक रेडियो की दुकान के अंदर गए--- हमें एक 600रूपये के करीब का ट्रांजिस्टर पसंद आया ....फिलिप्स का था....उस की यह खासियत कि चाहे तो सेल से चलाओ, चाहो तो बिजली से। दोस्तो, आप से क्या छिपाना, उन दिनों तो सैल भी बार-बार खरीदने चुभते थे। खैर, उस रेडियो पर मेरा दिल आ ही गया--- लेकिन मेरी जेब में केवल अढ़ाई-तीन सौ रूपये ही थे, मैं कुछ आना-कानी करने लगा था, लेकिन मिसिज ने जैसे मुझे उस दिन वह सैट दिलाने की ठान रखी थी, तो,दोस्तो, हम दोनों ने मिल कर उसे खरीद ही लिया। बस, उस दिन से उसे बिजली के साथ चलाने लगा और मेरी दुनिया में एक अनूठा संसार जुड़ गया --- यह सैट खरीदने से पहले तो सैल ज्यादा फुंकने की टेंशन होती थी, लेकिन अब तो बिना किसी रोक-टोक के दिन में जितना समय चाहो, आल इंडिया रेडियो के प्रोग्राम सुनने को मिलते थे। दोस्तो, मैं तो भई आज तक इस सैट के बारे में बड़ा इमोशनल हूं--- अब बीवी को भी अकसर कहता हूं कि हम दोनों द्वारा आज तक जितनी भी परचेजि़ग की गई है, वह रेडियो वाली खरीद मेरे लिए सब से ज्यादा मायने रखती है और सारी उम्र रखेगी। उस दिन मुझे उस रेडियो की ही जरूरत थी। एक तरह से देखा जाए तो उस रेडियो सैट की खरीद की याद हम दोनों के बीच एक भावनात्मक पुल का काम करती है। प्लीज़, आप कृपया इतने सीरियस न हो जाइए, लेकिन मुझे पता है कि इस पर आप का भी वश कहां है, ये लेखक लोग होते ही कुछ भावुक किस्म के हैं !!!
कुछ महीनों बाद, दोस्तो, हम दोनों की पोस्टिंग बम्बई हो गई ( मैं क्या करूं, मुझे तो दोस्तो अभी भी उसे पुराने नाम से ही पुकारने में आनंद मिलता है!!) सो , उस सैट के माध्यम से विविध भारती के प्रोग्रामों का भरपूर मजा लूटना जारी रहा। अभी बंबई गए हुए 2-3 महीने ही हुए थे कि वहां पर फिलिप्स का स्टीरियो (टू-इन वन) खरीद लिया और इस की स्टीरीयोफोनिक आवाज़ होने की वजह से उस का आनंद ज्यादा आने लगा। सो, अब उस पुराने वाले सैट के साथ साथ इस स्टीरिरयो पर भी रेडियो को सुनने का मजा आने लगा। पता नहीं, कितनी बार, शायद सैंकड़ो बार उन दिनों उस बेटा फिल्म की कैसेट के गीत सुन कर भी मैं कभी बोर नहीं हुया----!! लेकिन दोस्तो अब इन पुरानी यादों के झरोखों पर खड़ा-खड़ा ऊब सा गया हूं--- सो, फिर मिलते हैं।
Wish all of you and yours a Wonderful 2008------------may god fill your life with health and happiness during this year !!!!!!!

Sunday, December 23, 2007

जब रेडियो के मासूम से संसार में टू-इन वन ने धावा बोल दिया......

सीधी सादी रेडियो की दुनिया में भी टू-इन वन का धावा....
ज़िंदगी बहुत खुशनुमा उर्दू सर्विस के सहारे तैर रही थी, तब हम भी स्कूली छात्र थे। कभी कभी विविध भारती सुनने का जश्न भी हो ही जाता था-- विशेषकर रात के सन्नाटों के दौरान। आज बहुत समय बाद ध्यान आ रहा है कि स्कूल में भी क्रिकेट टैस्टों के दौरान अपने बहुत से साथी एक छोटा सा ट्रांसज़िस्टर ले कर आने का जोखिम उठा लिया करते थे- जोखिम इसलिए कि मास्टर जी की प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर होती थी कि उस दिन उन का मूड कैसा था। लेकिन अपने दोस्त भी खिलाड़ी थे- वो भी इस जोखिम को कम कुछ इस प्रकार कर लेते थे कि आधी छुट्टी के समय ही उस करिश्माई मशीन को निकालते थे या फिर दो पीरियड़ों के बीच का जो अंतराल होता था जब तक मास्टर साहिब की क्लास में एंट्री नहीं हो जाती थी। मेरे एक दोस्त का चेहरा आज मेरी आंखों के सामने घूम रहा है जो इतनी शिद्दत के साथ उस को कान के पास रख कर घुमाता रहता था कि किसी तरह उस के साथ साथ उस को घेरे खड़े गैंग के और छात्रों को सब कुछ स्पष्ट सा सुन जाए कि मदन लाल कैसा खेल रहा है, या फिर बिशन सिंह बेदी ने दूसरी टीम को कैसे धो डाला। आज कल बच्चे स्कूल में या ट्यूशनों में महंगे महंगे मोबाइल फोन ले जा कर भी वह रोमांच हासिल नहीं कर पाते होंगे, जो हम लोग एक छोटे से ट्रांजिस्टर से कर लिया करते थे।
यह सब उन दिनों की बातें हैं जब शोले फिल्म का बोलबाला सारे हिंदोस्तान में छाया हुया था --मोहल्ले में मुंडन हो ,चाहे शगुन की रस्म हो, सिप्पी साहब की इस अनूठी देन के सुपरहिट गाने और रोटी कपड़ा मकान के गीत बडे बडे लाउड स्पीकरों से बजना इन समारोहों का हिस्सा ही बन चुका था --- और हमें यही इंतजार रहता था कि अब मोहल्ले में अगली शादी किस के कहां कब होनी है। कईं बार यह भी सोचता हूं कि दोस्तो क्या मेरी जिंदगी ही हिंदी फिल्मों से इतनी गुथी हुई है कि जब भी अपने अतीत की कोई भी बात याद करता हूं तो उस से भी पहले उस दौर की फिल्मों का ध्यान आ ही जाता है। ओह, मैं फिस से अपनी बात से थोड़ा डेविएट हो गया---प्लीज़ क्षमा करें।
दोस्तो, उन दिनों यानि 1976 के आस पास दिल्ली अपनी बुआ के यहां जाने का अवसर मिला- वहां पर एक अजूबा देख लिया। मेरी बुआ की लड़की अकसर एकांत में बैठ कर एक मशीन पर शोले के डायलाग और गीत बार बार सुना करती थी---मुझे अच्छी तरह याद है कि उस मशीन को सुन कर मज़ा आ जाता था, तब यह भी पता लगा कि इस को टेप-रिकार्डर कहते हैं। इतना भी अच्छी तरह से याद है कि वह हमें अपने पास एक शर्त पर बैठने देती थीं कि हम बिल्कुल शोर न करेंगे--- बीच बीच में हमारी वो रीटा दीदी अपने मुंह पर उंगली ऱख कर चुप रहने का इशारा करती ही रहती थीं। यह भी हमारी समय में आ गया था कि इस मशीन में एक टेप डालनी पड़ती है। बस, साथियो, उस टेप-रिकार्डर से अपना नाता दो-चार दिन का ही था जो वापिस अपने घर अमृतसर आने के बाद टूट गया। और वापिस वही उर्दू सर्विस का फरमाइशी प्रोग्राम और हम...।
कुछ समय बाद जब कालेज की हवा लगनी शुरू हुई तो बम्बई ( जी हां, तब वह अच्छा खासा बम्बई ही हुया करता था) में अपने बड़े भाई के पास जाने का मौका मिला----- उधर तो फिल्मी गीत सुबह ही से शुरू हो जाते थे- और उन दिनों विदेशों टेपरिकार्डरों का बड़ा क्रेज़ था। उन के यहां भी सोनी का एक छोटा सा टू-इन-वन था, जिस का नाम तब पहली बार सुना था। सारा दिन उस टू-इन-वन के साथ चिपके रहना अच्छा लगता था। उन्होंने ने मुझे बहुत कहा कि तू इसे ले जा, मैं दूसरा ले लूंगा। लेकिन मैं बस न-न ही करता रहा। बस, वही छोटी छोटी खुशियां, और छोटी छोटी ज़रूरतें। दोस्तो, ठीक तो नहीं लगता ,लेकिन उस दौर के बच्चों में लगता है एक बात बड़ी जबरदस्त थी कि उन्हें इस बात का पूरा ज्ञान होता था कि कौन सी चीज़ उन के पेरेन्टस की रीच में है, कौन सी नहीं है। इसलिए वे किसी भी चीज़ के लिए मचलना शुरू नहीं कर देते थे। इस बात को देखने का दूसरा ढंग यह भी है कि आज कल बच्चों में अपने आस पास से इतना पियर-प्रेशर है कि अपने पापा के साथ जब किसी फिल्म की सीडी खरीदने जाते हैं तो कोई दो-अढ़ाई हज़ार का एमपी4 पसंद आने पर उसे खरीदने का मन बनाने में दो-मिनट भी नहीं लगाते-----एक बात यह भी तो है न कि उन्हें पता है कि मां-बाप ये सब लग्ज़रीज़ अफोर्ड कर सकते हैं।
1980 के गर्मी के मौसम में मेरे बड़े भैया अमृतसर आए हुए थे- उन को मेरा टेप-रिकार्डर सुनने का शौक पता था,सो उन्होंने ने मुझे एक दिन 1500 रूपये देकर कहा कि जो तेरे मन को अच्छा लगे वो टू-इन वन खरीद लाना। कालेज से छुट्टी होने के बाद, दोस्तों, मैं अमृतसर के हाल बाजार में पहुंच गया सर्वे करने अपनी साइकिल पर---बस उस दिन मेरे लिए भी वही बात थी---आज मैं ऊपर, आसमां नीचे,.................सो, दुर्ग्याना मंदिर के बाहर एक बिजली की दुकान से वैस्टन का एक टु-इन वन मैंने भी खरीद लिया और बेहद खुशी से झूमता हुया उस टूइनवन के डिब्बे को जैसे तैसे साइकिल के कैरियर पर रख घर पहुंचा। दोस्तों, जितनी खुशी मुझे उस दिन हुई शायद उतनी तो मुझे अपनी पहली कार खरीदने पर भी न हुी होगी। क्या करूं--- आप से क्या छिपाना, सब कुछ साफ साफ कहूंगा तो ही ठीक है, नही तो मेरा ही सिर दुखेगा। तब हमारे घर में पड़े बुश के रेडियो ने बैक सीट ले ली थी -- वह भी अब थोड़ा बुजुर्ग हो चला था। खैर, मेरे मनोरंजन की दुनिया का एक नया अध्याय उस टू-इन वन ने शुरू कर दिया। जब भी पढ़ता तो वह मेरा साथी मेरे पास होता । आस-पड़ोस के लड़कों में भी इस की वजह से अच्छी धाक हो गई । लेकिन मेरी दिली इच्छा यही होती थी, कि देखो जो मर्जी, लेकर प्लीज़ इसे छुएं मत। कुछ महीनों बाद 1980 की अगस्त में टैक्सला का ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी ले लिया --जी हां, वही बिलकुल आप के जैसे वाला---बड़ी सी लकड़ी की बाडी, शटर वाला और साथ में लम्बी लम्बी चार टांगो वाला।बस दोस्तो, अगले छः सात 1985-86 तक का समय इन्हीं के सहारे पास हो गया।
तब दिल्ली के पास ही रहने का अवसर मिला- तो सब से खुशी की बात वहां यह लगी कि वहां सुबह सुबह ही विविध भारती सुनने को मिलने लगा----जीहां,वह उर्दू सर्विस वाला साथी पीछे अमृतसर में ही छूट गया। शायद कभी कभी वह कैच तो हो जाता था, लेकिन वह भी धीरे धीरे पुराने दोस्तों की तरह छूट सा ही गया क्यों कि विविध भारती की चटपटी बातों और गीतों में ज्यादा मन लगने लगा।
दोस्तो, फिर कुछ दिनों में पता चला कि घर-घर में केबल लग रहे हैं जिस पर सारा दिन फिल्में दिखाया करेंगे। बहुत आश्चर्य हुया, लेकिन हम लोग ----हम लोग,खानदान, रामायण, रजनी- जैसे सीरियलों से ही मन बहलाने लगे। बाजार से किराये पर लाकर वीसीआर के साथ तीन फिल्मों की कैसेट ला कर सारा दिन चला कर देखने वाला रिवाज़ भी शुरू हो चुका था। हां,हां, हम कैसे पीछे रह जाते ---वह प्रयोग भी किया ,लेकिन बस वही झिक-झिक जो इन वीसीआर किराये पर चढ़ाने वालों से हुया करती थी कि बार बार रूकावट का कारण आप का पुराना हो चला टीवी सेट है जो आज कल चलता नहीं है। बस,दोस्तो, थोड़ी इंसल्ट सी लगती थी कि घर का सारा आंगन पड़ोस वाला से भरा हुया हो कि आज इन के घर में वीसीआर आया है और हम उन्हें एंटरटेन न कर पाएं.....और दूसरा उस केबल वाले को उस जमाने में पूरे पचास रूपये का किराया देने की टेंशन। घर आकर वीसीआर न चले, तो बिलकुल वही वाली बात......KLPD.... दोस्तो माफ कीजिएगा, मैं इस का फुल फार्म यहां बता नहीं सकता, लेकिन यह क्या आप तो पहले ही सी ज्ञानवान हैं और हंस रहे हैं। जी हां, आप हंसिए और मैं थोड़ा विश्राम ले लूं क्योंकि एक तो यह KLPD की याद आ गई है और दूसरा वीसीआर वाले से होने वाली झिकझिक से परेशान हूं। लेकिन आप क्यों परेशान हो रहे हैं, आप तो केएलपीडी की परिभाषा का ध्यान कर के हंसिए , खूब हंसिए .....अगर फुल-फार्म नहीं पता तो अपने साथियों से आज ही पूछने की ज़हमत उठाइए।
ok, friends, very good morning ...................आज हमारा बम्बई( नही, मुंबई) जाने का प्रोग्राम बना हुया है, छोटे बेटे की छुट्टियां हैं न , अपनी जन्म-भूमि के दर्शन करने के लिए पिछले कुछ अरसे से मचल रहा है। सो, फिर लगता है एक सप्ताह बाद इस मकड़जाल(वैब) के संसार में मुलाकात होगी। तब तक ...................Merry Christmas to all of you and yours......and Season's best wishes for a very very happy and healthy 2008.!!

Saturday, December 22, 2007

उर्दू सर्विस की भी क्या बात थी.........मनोरंजन की दुनिया को एक-दम घुमाने वाली सर्विस......

प्रिय ई-मित्रो, जब तक टीवी आया नहीं था, या यूं कहूं कि खरीदा नहीं था, ले देकर हमारी मनोरंजन की दुनिया तो भाई अमृतसर में आल इंडिया रेडियो की उस प्यारी सी उर्दू सर्विस पर ही टिकी हुई थी। सुबह, शाम और रात को खूब फिल्मी गीत बजते थे----इन तीनों कार्यक्रमों का नाम भी अलग था। स्कूल-कालेज के दिन थे--- लेकिन छुट्टी वाले दिन सुबह से ही ये गीत सुनना हमारे शुगल में शामिल था। और, रविवार तो शायद कोई इकबाल भाई और एक आपा बच्चों का प्रोग्राम बच्चों के लिए पेश करते थे जिसे मैं बड़े चाव से सुना करता था। उस कार्यक्रम की रिकार्डिंग के लिए बच्चों को रेडियो स्टेशन बुलाया जाता था, और वह एक घंटा कैसे बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था। दोपहर में जहां तक मुझे याद है कभी कभी किसी फिल्म के अंश भी प्रसारित किए जाते थे—बीच बीच में डायलाग और बीच बीच में गीत। बस, इन गीतों के बीच जो तप्सरा ( पता नहीं मैं ठीक से इस का नाम लिख भी पाया हूं कि नहीं) पांच मिनट के लिए आता था, वह मुझे कभी नहीं भाता था। बस, शोले, रोटी, रोटी कपड़ा मकान और डान जैसै फिल्मों के गीत बारम-बार सुनने का सिर पर जुनून सवार रहता था...... देखिए, दोस्तो, आखिर होता भी क्यों न, रेडियो पर इन गीतों का लुत्फ लेने के इलावा बनारस वाले पान की गीत की ट्यून पर मन ही मन थिरकने का दूसरे तरह का मौका पता है कब मिलना होता था----- जब मोहल्ले में कोई शादी हो, किसी के घर जागरण हो, या कहीं रामलीला का आयोजन हो रहा हो-----भला, फिर जब लाऊड-स्पीकर पर कान का पर्दा-फाड़ वाल्यूम पर दस-नंबरी का कोई गीत, संयासी का कोई गाना , या फिर हरे रामा हरे कृष्णा का ही कोई गीत चल रहा हो ,तो कौन भला ऐसा होता होगा जो किसी दुनिया में न खो जाता होगा।
हां, तो बात हो रही थी उर्दू –सर्विस की--- तो रात में बजने वाले गीत हम लोग आंगन में चारपाई पर लेट कर ही सुना करते थे--- अपने रेडियो पर नहीं, सामने वाले घरों से ही इतनी सीधी आवाज़ आ जाया करती थी कि अपने ट्रांसिस्टर के सैल क्यों बर्बाद किए जाते। उस समय पाकीज़ा, बरसात की रात के गीत बज रहे होते थे .....और उस समय मैं और मेरी मां मेरे पिता जी के आने की बड़ी ही व्यग्रता से इंतजार कर रहे होते थे----जैसे ही बाहर किसी साइकिल की चेन सी आवाज़ सुनती, मैं खुश होता कि पिता जी आ गए....पिता जी आ गए। मौसम के अनुसार उन के द्वारा लाए हुए फलों एवं किसी मिठाई वगैरह का जश्न लूट कर पता नहीं कब निंदिया की गोद में चला जाता।
दोस्तो, यह ब्लाग तो बस मेरा मन हल्का करने का एक बहाना है, और आप से यह शेयर करने का एक बिलकुल तुच्छतम प्रयास है कि रेडियो किस तरह से मेरी जि़दगी से जुड़ा हुया है और आज तक जुड़ा हुया है।
लेकिन अतीत में गोते लगाना अब लगता है इतना आसान काम भी नहीं है...एक मिश्रित सा अनुभव है क्योंकि कुछ छोटी-छोटी बातें बेहद तंग करती हैं......छोटी2 बातें कहें, छोटी2 खुशियां कहें...........कुछ भी कहें.......लेकिन मैं तो इतना ही कहूंगा,दोस्तो........
Enjoy the little things in life……someday, you will look back and realize that those were indeed the big things..

OK, friends, good night……आज कल कभी वह वाली उर्दू-सर्विस के द्वारा प्रसारित गीत सुने नहीं......सर्विस तो अभी ज़रूर होगी, शायद मेरे इस नए शहर में मेरे वाला रेडियो कैच ही न कर पाता हो। तो , फिर अब क्या करूं.....वारदात की कुछ खौफनाक बातें टीवी पर देख कर डर कर, सहम कर सो जाएंगे, और क्या !!!

Friday, December 21, 2007

जब रेड़ियो मन बहलाने के बावजूद थप्पड़ खाता था ....


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जी हां, बात उस समय की है शायद 70 का दशक शुरू हो चुका था ....घर में केवल मन बहलाने का एक मात्र साधन बस एक मर्फी का रेडियो ही तो था। उस पर गाने-वाने सुन लिए जाते थे। मुझे याद है उन दिनों मेरे बड़े भाई को ,जो उन दिनों मैट्रिक कक्षा में था, सिबाका गीतमाला जो दिसंबर के महीने के आखिर दिनों में प्रसारित किया जाता था---उसे वह प्रोग्राम सुनना बड़ा अच्छा लगता था। लेकिन एक दिन जब वह जैसे ही उस रेडियो के बटनों को घुमा-फिरा कर अपने पसंदीदा प्रोग्राम के लगने की इंतजार कर रहा था तो उसे मेरे पिता जी ने किसी कारण वश खूब डांटा था। इस बात का कम्पैरीज़न मैं आज की नव-पीढ़ी के साथ करता हूं तो सोचने पर सचमुच विवश होना ही पड़ता है कि ज़माना काफी नहीं, बिल्कुल ही बदल गया है। ओह, मैं उस रेडियो की एक खासियत तो बताना भूल ही गया कि वह आन करते ही शुरू नहीं हो जाया करता था--उसे गर्म होने के लिेए टाइम चाहिेए होता था। फिर उस पर किसी प्रोग्राम सुनने का संघर्ष शुरू हो जाया करता था--- कभी कभी कुछ भी जब नहीं सुना जा रहा होता था तो मेरा भाई उस की बाडी पर आकर दो-चार बार हाथ थपथपा देता था तो वह चल पड़ता था। लेकिन जब कभी सौभाग्य से रेडियो सिलोन या बीबीसी लग जाता था, तो ऐसे लगता था कि लाटरी लग गई है। सचमुच पहले खुशियां भी कितनी छोटी छोटी हुया करतीं थीं। हां, याद आ रहा है कि कुछ कुछ एंटीने की तार का भी चक्कर जरूर था। खैर, जैसे तैसे टाइम तो पास हो रहा था।
शायद 1974 के आस पास हमें बम्बई जाने का मौका मिला - वहां हमारे एक निकट संबंधी बुश कंपनी में लगे हुये थे। उन्होंने शायद कुछ रियायती मोल पर एक ट्रांसिस्टर दिलवा दिया - वाह, क्या बात थी....हमारे तो रेडियो सफरनामे का अध्याय ही बदल गया- और उस मर्फी वाले सेट ने बैक-सीट ले ली। उस नये वाले ट्रांसिस्टर का यह फीचर कि जब चाहो बिजली से चला लो, और जब चाहो सैल से चला लो, हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों को भी बहुत भाता था। उस का चमड़े का एक बस्ता भी था और साथ में कंधे अथवा खूंटी पर टांगने के लिए एक स्ट्रेप भी। हम सब उस को बड़ी हिफ़ाज़त से रखते थे। खास कर मैं गर्मी की रातों में आंगन में चारपाई पर जब लेकर लेटता था तो उस के साथ को बड़ा एंज्वाय करता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों उस पर एक गाना बहुत ज्यादा बजा करता था ......बम्बई से आया मेरा दोस्त , दोस्त को सलाम करो।.........
कभी कभी सर्दी की सुनसान रातों में रजाई में दुबके हुए जब विविध भारती लग जाता था तो बेहद खुशी होती थी---- खासकर हवा महल प्रोग्राम सुन कर या कुछ ऐसे ही चटपटे गीत सुन कर। बस,ऐसे ही जैसे ही हवा का रूख बदलता था तो वह प्रोग्राम भी बजना बंद हो जाता था.....और फिर पता नहीं कितने समय तक प्रोग्राम को वापिस सुनने का अनथक संघर्ष करते करते कब नींद की गोद में पहुंच जाते थे पता ही न चलता था-----शायद कुछ कुछ वैसे जैसे आज कल हमारे बच्चे देर रात तक इंटरनेट पर कुछ ढूंढते 2 सो जाते हैं। खैर , यह सब मैं 1977-78 -79 की ही बात कर रहा हूं , उन दिनों मेरे बड़े भैया बम्बई में रहते थे, इसलिए जब विविध भारती पर कुछ सुनता था , तो लगता था कि मैं उस के पास ही बैठा हूं।

Thursday, December 20, 2007

वो रेडियो की लाइसैंस-फीस जमा करवाने वाले दिन.........

साथियो, रेडियो मेरी जिंदगी का एक ऐसा अभिन्न अंग है कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं अपनी बात कहां से कहनी शुरू करूं। बस ,अपनीज ज़िंदगी में पीछे पलट कर जिधर भी देखता हूं, मुझे रेडियो हर तरफ नज़र आता है। बस, सब से पुरानी और थोड़ी धुंधली सी याद उस समय की है जब मैं आठ-नौ बरस का रहा हूंगा और मेरी मां ने हिदायत दी कि बेटा, अब कुछ ही दिन बचे हैं, डाकखाने में जाकर रेडियो की लाइसेंस फीस जमा करवा कर दो। शायद दस रूपये के आस पास की यह फीस हुया करती थी । उस फीस को लेकर डाक बाबू एक किताब में इस के बाबत एंट्री कर के हमें वह रेडियो लाइसेंस बुक हमे वापिस कर देते थे। कुछ पाठक जो छोटे हैं ,उन का इस बात पर हंसना स्वाभाविक है---यार, यह रेडियो के लाइसैंस की बात कर रहा है या किसी स्टेनगन लेने की। लेकिन, दोस्तो यह उस जमाने की सच्चाई थी, यह मैं शायद सत्तर के दशक के शुरू शुरू की बात कर रहा हूं। और हां, कुछ इस तरह के इंस्पैक्टर भी घरों में आते थे जो पूछते कि घर में कितने ट्रांजिस्टर,रेडियो हैं और इस लिए किताने बताने हैं, कितने छिपाने हैं, घर के बाहर कंचे खेल रहे बच्चों को इस के बारे मे कड़ाई से हिदायतें जारी की गई होती थीं। लेकिन हमारे यहां तो मरफी का एक ही सैट था, जिस का डिब्बा मैंने आज भी संभाल कर रखा हुया है। दो महीने पहले जब हमारे पैत्तृक घर में चोरी हुई, काफी कुछ ले गए....लेकिन जब मैंने उस मरफी के डिब्बे को एक मेज़ के नीचे पड़ा देखा तो मेरा दुःख काफी कम हो गया---क्योंकि वह मेरे लिए एक डिब्बा नहीं है, मुझे मेरे अतीत से , मेरे बचपन से जोड़ने वाला मेरे लिए एक बेशकीमती यंत्र है, जिसे आज भी मेरी मां एक कपड़े से ढंक कर रखती है। उस डिब्बे से जुड़ी मैंने अपने 16 साल के बेटे को जब किस्से सुनाए तो उस को भी उस डिब्बे से प्यार सा हो गया लगता है...................
बस, अब मैं थोड़ा पुरानी यादों में खोना चाहता हूं..........Please excuse me!!