जब घर में रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस लगता था ... |
और तारीख खत्म होने पर डाकखाने से रिमाईंडर के तौर पर चिट्ठी आ जाती थी कि सरकार ने क्षमादान की एक स्कीम चलाई है जिस के अंतर्गत आप अभी भी आपने रेडियो के लाईसेंस को रिन्यू करवा लें....👇 |
कल सुबह रेडियो सुनते वक्त पता चला और फिर याद भी आया कि १३ फरवरी को तो विश्व रेडियो दिवस होता है ...रेडियो पर भी बहुत से प्रोग्राम आएंगे इस से जुड़े हुए....कल शाम सोचा कि मेरे जैसे लोग जो पिछले कईं दशकों से इस रेडियो के पिटारे के साथ जुड़े हुए हैं उन का भी शुक्रिया कहना बनता है ....
खैर, ६२ साल की उम्र में यह कहूं कि ६२ बरसों ही से रेडियो के साथ जुड़ाव बना हुआ है तो यह बात थोड़ी तो फिल्मी लगेगी...लेकिन सच यही है कि जब से होश संभाला है तभी से रेडियो को अपने ज़िंदगी का हिस्सा समझा है ....
सोच रहा हूं आज इस पोस्ट के बहाने पिछले ६०-६२ बरसों में जो यादें रेडियो के साथ जुड़ी हैं, उन को बहुत संक्षेप में लिख ही लेता हूं...
जी हां, हम उस युग से संबंध रखते हैं जब घर की किसी लकड़ी की मेज़ पर रखा बिजली से चलने वाला रेडियो ही हमारे मनोरंजन का एक ज़रिया हुआ करता था और हर घर में अकसर एक रेडियो ज़रूर होता था, और दहेज में भी अकसर लोग इसे दिया करते थे ....
अभी तक की ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा पंजाब में और वहां भी अमृतसर में बीता तो ऐसे में रेडियो से जुड़ी शुरुआती यादें भी वहीं की हैं....बचपन में आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस के प्रोग्राम वहां सुनते थे जिस में फिल्मी गीत बजते थे ...अगर कभी अपना रेडियो न बजता तो पड़ोसियों के रेडियो से आवाज़ आ जाया करती थी ....और शाम के वक्त जालंधर से देश पंजाब प्रोग्राम पंजाबी में आता था....जिस में पंजाब का लोक-संगीत और पंजाबी फिल्मी गीत बजते थे ....एक घंटे चलता था और उस वक्त भी हमारा रेडियो ऑन होता था ..
दरअसल रेडियो जैसी हस्ती जिस से कोई इतने लंबे अरसे से जुड़ा हुआ हो उस से जुड़ी यादों को एक एक वाक्य में पिरोना भी नामुमिकन सा लगता है ....वैसे मैंने जब २००७ में हिंदी में ब्लाग्स लिखने शुरु किए तो उस के एक महीने बाद ही यह ब्लॉग भी बना लिया ..रेडियो धमाल ....लेकिन इन १७ बरसों में कुल १३ पोस्ट ही लिखी हैं उस ब्लॉग में ....अगर आप भी मेरी उन यादों के तालाब में डुबकी लगाना चाहें तो इस ब्लॉग की पिछली पोस्टें देखिए.....शायद आप को भी लगे कि ऐसी ही यादें रेडियो से जुड़ी अपनी भी हैं....
खैर, अमृतसर में कभी कभी रेडियो लाहौर भी लग जाया करता था ....बालपन की उस अवस्था में बड़ी हैरानी हुआ करती थी कि पड़ोसी देश के रेडियो को भी सुन सकते हैं....
रेडियो से लगाव निरंतर बना हुआ है ....मुझे याद नहीं कब से हमारे यहां पर टीवी पर खबरें देखना बंद है ....आठ दस साल तो हो ही गए होंगे....टीवी दीवार पर नहीं, ऐसे ही कहीं पड़ा कहीं रुल रहा है ....और टीवी ट्राली पर टू-इन-वन (रेडियो स्टीरियो) रखा हुआ है ...बिजली से चलने वाला ....जिस की फोटो यह आप देख रहे हैं.....घर के हर कोने में एक रेडियो है ....आज भी हमारी बैठक में रेडियो सब से कीमती चीज़ है ...
और रेडियो पर कईं स्टेशन हैं, लेकिन अपनी दोस्ती तो विविध भारती के साथ पक्की है ....कब से, यही कोई पैंतीस-चालीस साल से ...पंजाब में जब तक रहा तो विविध भारती रात के वक्त कभी १०-२० मिनट के लिए लग जाता था ...लेकिन वह भी साफ नहीं सुनता था ....
१९९० में दिल्ली में नौकरी करने आया.....अभी पहली तनख्वाह भी नहीं मिली थी ....मिलने ही वाली थी ...चांदनी चौंक में रेडियो की बहुत सी दुकानें थीं....चूंकि दिल्ली में िवविध भारती अच्छे से सुनाई देता था तो बहुत इच्छा थी कि एक अच्छा सा रेडियो खरीद लूं....दुकान पर चढ़ते डर रहा था कि पता नहीं जेब में उतने पैसे हैं भी कि नहीं.....खैर, जेब में ७०० रूपए थे, और ५५० का वह फिलिप्प का रेडियो खरीद लिया.....अभी बहुत बूढ़ा हो चुका है, लेकिन हिंदोस्तान में कहीं तो संभाल के रखा पड़ा है ....उसे कैसे कबाड़ में फैंक दें, यादें जुड़ी हैं बहुत सी उस के साथ ..सुबह सुबह रोज़ उठ कर काम पर जाने से पहले उस पर विविध भारती चैनल पर गाने सुनना.......हा हा हा हा .....
१९९१ में मुंबई आते ही पहली तनख्वाह मिली तो ग्रांट रोड से फिलिप्स का टू-इन-स्टीरियो ले कर आ गए ...उन दिनों ३२०० रूपये का आया था ....रेडियो तो उस पर सुनते ही थे....लेकिन उन दिनों एक फिल्म आई थी ...सजना साथ निभाना....उस फिल्म की और दो तीन और फिल्मों की कैसेटें ले आए....और बार बार उन को चला कर उस स्टीरियो के हेड को घिसाने की पूरी कोशिश की, लेकिन उसने पूरा साथ दिया....जो दो गीत उन पर बार बार अनेकों बार सुन सुन कर पड़ोसियों को भी परेशान कर दिया होगा वे यह थे ...एक बेटा फिल्म का गीत और दूसरा सजना साथ निभाना फिल्म का गीत ....उन में एक गीत तो यह था, दूसरा नीचे एम्बेड किया है ....
१९९४ की बरसात की बात है .... बंबई में नया नया एफएम आया था ....शायद २००० रुपए में फिलिप्स का एक वर्ल्ड रिसीवर खरीद लिया....अभी भी याद है कुछ दिनों बाद हम लोग लोनावला जा रहे थे तो मैं एसी कोट के बाहर खड़ा हो कर उस की रेंज चेक कर रहा था ....उन दिनों बंबई से ६० किलोमीटर की दूरी तक एफ-एम रेडियो पकड़ता था ....
ऐसी पोस्ट लिखते वक्त यही लगता है कि क्या लिखें, क्या दर्ज़ करें और किसे बिसार दें.....रेडियो की दुनिया से जुड़ी सारी की सारी बातें तो स्मृति के पटल पर एक दम ताज़ा-तरीन लिखी पड़ी हैं...
इस ब्लॉग में पिछली १२-१३ पोस्टों में पहले ही लिख चुका हूं .....हां, मुझे याद आया अभी कि मेरे पास जो विंटेज मैगज़ीन की कलेक्शन है, उन में रेडियो के इश्तिहार भी तो हैं....बहुत से हैं, मैं इस वक्त इन को ही ढूंढ पाया .....
इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपा हुआ ६० साल पुराना इश्तिहार - १९६४ |
१९६४ के इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के उसी अंक में छपा एक और विज्ञापन |
रेडियो पर लिखने को बहुत कुछ है ...६० बरसों की यादों को ६० मिनटों में इबारत लिख कर कैसे कोई समेट सकता है.....
बस, आज विश्व रेडियो दिवस के मौके पर रेडियो का एक सच्चे दोस्त के तौर पर शुक्रिया करता हूं ....अभी भी जब कभी सिर भारी हो, दुख रहा हो तो बिना डिस्परिन लिए विविध भारती सुनते सुनते सिरदर्द छू-मंतर हो जाता है ...अकसर उसे सुनते सुनते नींद भी आ जाती है ....और कईं बार रात के वक्त इसे मोबाइल एप पर सुनते सुनते जब नींद आ जाती है तो यह सारी रात चलता ही रह जाता है ...बीच में कभी उठता हूं तो भी इसे बंद करने की हिम्मत नहीं होती ....मुझे आज भी रेडियो बिजली वाले रेडियो पर ही सुनना भाता है ...थोड़ी सी तेज़ आवाज़ में .....मोबाईल पर भी जब रेडियो सुनता हूं तो उसे कानों में एयर-फोन ठूंस कर सुनना नहीं भाता ....क्या करें, पुरानी आदतें कहां छूटती हैं... 😂
रेडियो पर टॉक भी कीं...जालंधर में, लाईव फोन-इन प्रोग्राम में भी बुलाया गया....रोहतक के मेडीकल कालेज में नौकरी के दौरान भी दो-चार टॉक के लिए आल इंडिया रेडियो में बुलाया गया...अच्छा एक्सपिरिएंस था....किसी भी नयी जगह जाएं तो कुछ नया सीखते ही हैं...रोमांचक तो लगता ही है ...और फिर बाद में रेडियो पर अपनी आवाज़ को सुनना.... मज़ा आ जाता था....जिस दिन प्रोग्राम रेडियो पर प्रसारित होने वाला होता तो ऐसे लगता जैसे पूरा शहर ही मुझे सुन रहा है....जब कि गिनती के चंद लोग जिन्हें बार बार याद दिलाया जाता उन में से भी कुछ ही सुन पाते.....कुछ तो भूल जाते और किसी के घर की बिजली उस वक्त गुल हो जाती ....क्या करें....😂😂😁😁
मुझे पता है रेडियो पर अपनी बात कितनी आधी अधूरी कह पाया हूं और कितना अभी भी कहना बाकी है ....
जिस फिल्मी गीत को सुनते सुनते फिलिप्स स्टीरियो के हेड को घिसाने की मेरी कोशिश पूरी रही, लेकिन मैं कामयाब न हो सका...😎
इस वक्त भी विविध भारती पर यह गीत बज रहा है ......जैसे हमें कोई बढ़िया मशविरा देता हुआ...
मन का रेडियो बजने दे ज़रा ..
गम को भूल कर जी ले तू ज़रा ....
स्टेशन कोई नया ट्यून कर ले ज़रा ...
2 comments:
डॉ प्रवीण चोपड़ा जी,
आपका ब्लॉग पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया. पुरानी यादें ताज़ा हो गई. उनमें से तो कई बातें तो अपनी ही लगती हैं. जैसे विविध भारती का नशा. सारे गाने वहीं से याद हुए. 😊😊
फिर घर में बड़ा रेडियो बिजली वाला और बाद में कॉलेज में छोटा मरफी रेडियो.
रोहतक में रेडियो पर आधे घंटे का गाने का प्रोग्राम आप की पसंद मैंने भी दो तीन बार पेश किया था और प्यार मोहब्बत वाले गाने चुनते थे और सब को कहते थे कि भाई सुनना ज़रूर. फिर पुणे में हेल्थ टॉक कई बार दी.
मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया... एक बात और कहना चाहूंगा कि जब कभी मूड़ ठीक न हो तो दो तीन फड़कते हुए गाने सुन लो. बस फिर क्या था जोश आ जाता है. और मुझे हैरानी तब हुई जब एक बार यूँ ही बात करते हमारे सी एम डी, डॉ सोमपाल जी ने बताया कि वो सुबह दो या तीन गाने सुन कर ही बाहर निकलते थे.
बहुत बढ़िया लिखा है आपने. बधाई हो. डियर अब तो किताब लिखो. और...
करोगे याद तो हर बात याद आएगी,
गुजरते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी...
डॉ राज कुमार, राजकोट
कुछ हौसलाफ़ज़ाई करती हुई दिल से लिखी हुई टिप्पणीयां भी ब्लॉग की बात को आगे बढ़ाती लगती हैं....इसलिए वॉटसएप पर मिली इस बहुत सुंदर फीडबैक को यहां पेस्ट कर दिया है...
डा राज कुमार स्वयं एक सफल एवं प्रतिष्ठित लेखक हैं...दो किताबें आ चुकी हैं, और निरंतर लिखते हैं....ज़िदंगी जीते हैं ....
बहुत बहुत शुक्रिया...आप के सुझाव सिर माथे पर ....डा साहब ..और हां, फिल्मी गीतों के भी शौकीन और गाते भी बहुत बढ़िया हैं....आज पता चला कि इस के पीछे भी कहीं विविध भारती का भी योगदान रहा है।
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