कुछ दिन पहले मैं कर्जत में था...ऐसे ही बिना किसी ख़ास वजह के ही कर्जत देखने की इच्छा हुई, सो हो गया कर्जत के लिए रवाना... स्टेशन के बाहर एक दुकान पर कपड़े का थैला खरीदने के लिए रुका...उस के मालिक जो एक मुस्लिम बुज़ुर्ग थे ..75-80 बरस के तो होंगे ही ... उन की दुकान में बहुत बढ़िया फिल्मी गीत बज रहे थे ...शाम का वक्त था ...अच्छा माहौल था ..मैंने ऐसे ही पूछ लिया ...पुराने दौर के बहुत उम्दा गीत सुन रहे हैं, एफ.एम लगा है क्या! उन्होंने बताया - नहीं, चिप लगा रखा है।
अच्छा लगा उन की बात सुन कर ... मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे पास भी अब तो फिल्मी गीत सुनने के कितने जुगाड़ हो गए... आज से 50 साल पहले की बातें याद करता हूं तो याद आता है कि फिल्मी गीतों से हमारे तालुक्क रेडियो के ज़रिए ही हुआ करता था ..सुबह शाम कुछ वक्त के लिए हिंदी फिल्मी गीत बजा करते थे ...इंतज़ार रहता था ... दूसरी-तीसरी कक्षा के दिनों की बातें हैं...हमारे पास मर्फी का एक रेडियो था ...जिस की सालाना 2-3 रूपये लाइसेंस फीस डाकखाने में जमा करना पड़ती थी ...और एरियर की लंबी तार को ऊपर छत पर जा कर किसी ईंट के नीचे रखना पड़ता था ... रेडियो का स्विच ऑन करने पर उसे गर्म होने के लिए समय लगता था .. उस के बाद भी भरोसा नहीं सिग्नल मिलेगा कि नहीं, और अगर सिग्नल मिलेगा भी तो कितना स्ट्रांग ... मेरे कहने का आशय है कि बड़ी मुश्किल से ही किसी गीत के पूरे बोल सुन पाते थे ...
बहरहाल, ज़िंदगी कट रही थी, सुकून बहुत था .. लेकिन आज से 50-52 साल पहले का दौर वह था जब रेडियो सुनना भी एक ऐब जैसा माना जाता था ...मुझे धुंधला धुंधला याद है कि घर में कोई पढ़ रहा हो तो रेडियो लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता था, किसी के इम्तिहान चल रहे हैं तो भी, किसी की आठवीं-दसवीं या प्री-मैडीकल की पढ़ाई है तो भी बहुत संकोच के साथ ही रेडियो चलाया जाता था ..कोई न कोई टोक ही देता था ...पढ़ ले, कुछ दिनों की बात है, उस के बाद इसे ही सुनना है, कहीं भागा नहीं जा रहा। मुझे अभी भी याद है मैं 7-8 बरस का रहा हूंगा और मेरा बड़ा भाई दसवीं में ...उसे रेडियो सुनना बहुत भाता था ...जितनी मशक्कत मैंने उसे रेडियो के साथ करते देखा ...कभी उस के बटनों को घुमाते, कभी रेडियो की बॉडी को थपथपाते ....कभी सिग्नल मिल जाता तो कोई टोक देता ...कोई झिड़क देता ... और रेडियो सुनने के अरमान दिल में ही दबे रह जाते ... और हां, बिजली जाने का, ब्लैक-आउट होने का लफड़ा, वो अलग ... क्योंकि ये सभी रेडियो बिजली ही से चलते थे। सारी बात का सार यही समझिए कि रेडियो पर अमीन सयानी द्वारा प्रस्तुत सिबाका गीत माला का पूरा लुत्फ़ उठाने के लिए मुकद्दर का सिकंदर होना ज़रूरी था...
रेडियों से जुड़ी यादें मैने अपने इस ब्लॉग पर और रेडियोनामा ब्लॉग पर संजो कर रखी हैं... इस ब्लाग पर आज 11 महीने के बाद लिख रहा हूं ..ऐसे ही ख़्याल आ रहा कि हमारे लोगों के पास जितने ज़्यादा साधन हो गए हैं मनोरंजन के ...उतनी ही उन की वेल्यू ख़त्म सी हो गई है...मैंने ऊपर लिखा है कि फिल्मी गीत सुनने के लिए रेडियो का और उन्हें देखने के लिए 1975 के आसपास के दिनों में दूरदर्शन ही एक सहारा हुआ करता था ... अब तो हर तरफ़ मनोरंजन ही मनोरंजन है, है कि नहीं?- दर्जनों तरह के उपकरण आ गये हैं ये सब देखने-सुनने के लिए ...इस फेहरिस्त में सब से ऊपर तो है मोबाइल ....साथ में लगा लिए एयर-फोन तो बस हो गया काम। देखते ही देखते सारे-गामा जैसे उपकरण आ गए जिसमें हज़ारों गीत स्टोर हैं, अपनी पसंद के मुताबिक सुन लीजिए....
सुविधाएं जितनी भी बढ़ गई हों, लेकिन मुझे हमेशा ही से और आज भी रेडियो पर ही फिल्मी गीतों के प्रोग्राम सुनना भाता है ...कभी कभी मुझे विविध भारती अपने मोबाइल पर सुनना पड़ता है ...लेकिन हमारे यहां हर कमरे में बिजली या सेल से चलने वाला ट्रांजिस्टर या रेडियो है ...और एंटीक रेडियो सेट्स की एक अच्छी कलेक्शन कर रखी है ...कारण वही एक कि हमें रेडियो से बेइंतहा मुहब्बत है ...और सुनते भी हम विविध भारती ही हैं...जितने भी गेजेट्स आ जाएं, जितने भी एप्स आ जाएं...लेकिन बिजली वाले रेडियो से फिल्मी गीत सुनने का मज़ा ही अलग है ...यह भी एक ऐसी चीज़ है ...जिस की तरफ़ देखते ही पुराने दिन यकायक आंखों के सामने आ जाते हैं....पिता जी का ख़बरों के प्रति लगाव, पड़ोस वाले नानक सिंह अंकल का ट्रांजिस्टर कंधे पर रख कर आंगन में तब तक चक्कर लगाते रहना जब तक बंगला देश के आज़ाद होने की ख़बर बीबीसी से साफ़ सुनाई न देने लगे ...उन दिनों जिस का रेडियो बीबीसी पकड़ लेता था ...वह भी उस दौर का एक स्टेट्स सिम्बल ही होता था... और अभी अपने बुज़ुर्ग नाना जी का ख़्याल आ गया...80 की उम्र में भी आठवीं -दसवीं कक्षा को मैथ-इंगलिश पढ़ा कर आत्म-सम्मान से रहते थे ... जब रात में बच्चे पढ़ कर चले जाते तो वे बड़ी कोशिश करते कि बिजली वाला रेडियो चल पड़े ...उन की मशक्कत देखते मैं भी मन ही मन प्रार्थना करता कि काश, यह चल जाए और नाना जी का मन बहल जाए ....लेकिन मुझे नहीं याद कि कभी उस ने नाना जी का दिल बहलाया हो...
आज इतने लंबे अरसे बाद यह लिखना का ख़्याल इसलिए भी आ गया कि आज महान गीतकार आनंद बक्शी साहब के बेटे ने एक सीरीज़ शुरु की है ...बक्शी साहब के फैन्स की इंटरव्यू ... और मुझे उन्होंने आज कहा है कि किसी दिन तुम्हारा इंटरव्यू भी करना है ...सोच रहा हूं आनंद बक्शी साहब के बारे में मैं क्या कहूंगा ... जो काम वो कर गए, उस की महानता ब्यां करने के लिए अल्फ़ाज़ कहां से लाएगा मेरे जैसा अनाड़ी ...
मेरे ख़्याल में आज यहीं पर फुल-स्टाप लगाते हैं ....नींद आने लगी है, एक गीत लगा देता हूं ...यह उन तीन चार गीतों में से एक है जिस के साथ मुझे छुटपन की कुछ यादें बाबस्ता हैं ... शायद यह गीत मैं तब से सुन रहा हूं जब मैं पांच बरस का था ... यह है फिल्मी गीतों का जादू....पचास साल से हज़ारों बार न भी सही, सैंकड़ों बार तो वही गीत सुन कर लुत्फ़अंदोज़ होते हैं लेकिन फिर भी, दिल है कि मानता नहीं, अभी भी सुनते ही रहते हैं अकसर!!
प्रवीण चोपड़ा
25.2.21
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