Monday, January 13, 2014
मेरा पुराना ट्रांसिस्टर..
यह जो ट्रांसिस्टर मैंने यहां दिखा रहा हूं यह मैंने १०-१२ वर्ष पहले एक गाड़ी में खरीदा था।
अब तो मुझे पता नहीं कि यह धंधा चलता है कि नहीं, लेकिन लगभग दस वर्ष पहले मैंने इसे गोहाटी से दिल्ली आने वाली एक ट्रेन के सैकेंड एसी के डिब्बे में खरीदा था, शायद २५0-३०० रूपये का था। देखने में इतना बढ़िया लगा कि मैं अपने आप को रोक न पाया।
समस्या आज एफएम और विविध भारती प्रोग्राम देखने की है..पहले मैं एक एफएम के डिब्बे से काम चला लिया करता था, लेकिन अब उस में कईं बार थोड़ा झंझट सा या अजीब सा लगता है ..उस के एरियर वाली तार को हिलाते रहो, अजीब सा लगता है ...उन ४०वर्ष पुराने दिनों की बात याद आ जाती है जब अपने मर्फी के रेडियो के साथ ऐंटीना की तार बांध कर घर के ऊपर छत तक पहुंचाई जाती थी।
फिर एक एलजी का एक फोन इसी काम के लिए लिया--GM 200- बहुत बढ़िया सेट है यह ...आप सोच रहे होंगे कि एफएम तो आजकल लगभग हर फ़ोन में होता है ऐसे में इस की इतनी क्या विशेषता है, जी हां, यह स्पैशल है ..मेरे बेटे ने नेट पर रिसर्च करने के बाद इसे रिक्मैंड किया था ..खासियत यही है इसकी कि इस में एफएम सुनने के लिए साथ में एयरफोन नहीं लगाने पड़ते। जी हां, यह वॉयरलैस एफएम रेडियो की सुविधा देता है।
लेकिन हम ठहरे पक्के रेडियो प्रेमी.....जब तक किसी ट्रांसिस्टर जैसे डिब्बे में रेडियो ना सुना जाए, कुछ कमी सी लगती है।
इसलिए आज जब मुझे इस ट्रांसिस्टर की याद आई तो इसे निकाला, सैल डाले और यह बढ़िया चल रहा था।
एक बात तो और बता दूं जिस गाड़ी में यह खरीदा था ..शायद उस स्टेशन का नाम सिलिगुड़ी या फिर न्यू-जलपाईगुड़ी है...वहां से नेपाल शायद बिल्कुल पास ही है, इसलिए वहां गाडियों में और इस तरह का तथाकथित इम्पोर्टेड सामान जैसे कि रेडियो, टू-इन-वन,कैमरे आदि खूब बिकते हैं.. मोल-तोल भी खूब होता है उन्हीं पांच-दस मिनटों में..सब डरते डरते लेते हैं कि क्या पता गाड़ी से उतरने पर ये उपकरण चलें भी या नहीं..लेकिन फिर भी मेरे जैसे लोग अपने को रोक नहीं पाते।
एक बात और..उसी स्टेशन पर मुझे याद है चाय बेचने वाले अपनी अंगीठी समेत एसी के डिब्बे में भी चढ़ जाते हैं...अच्छे से याद है एक अंगीठी से कुछ कोयले एसी डिब्बे के फर्श पर गिर गये और वह बिल्कुल जल सी गई .....लेकिन न तो कोच अटैंडैंट की और न ही टीटीई की इतनी हिम्मत हुई कि वह उस चाय वाले से उलझने का साहस करें। इस के कारण गाड़ी चलने पर पता चले।
लेकिन जो भी है, आज जब गाड़ियों में आग की इतनी वारदातें देखने में आ रही हैं, इस तरह की अराजकता को भी रोकने के लिए कुछ तो करना ही होगा।
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5 comments:
डॉ साहब, रेडियो यहाँ तो दिख नहीं रहा। फेअसबुक पर जरूर दिख रहा है।
यहाँ शायद अपलोड होने से रह गया है।
:)
सागर जी, मुझे तो दिख रहा है भाई।
ये तो टूइनवन जैसा दिख रहा है.
मेरे पास भी कई रेडियो हैं. एक तो फ़िलिप्स का सेल्फजनरेटर युक्त लिया था - आधे घंटे हाथ से उसमें चाभी भरो, और कोई चार-पांच घंटे रेडियो सुनो.
रेडियो की बात निकली है तो याद आया - मैंने सब्सक्राइबर युक्त चालीस चैनल का एक सेटेलाइट रेडियो रतलाम में रहते हुए बाहर से मंगवाया था, पर महीने भर में बोर हो गया क्योंकि उसमें हिंदी कंटेंट ही नहीं था ज्यादा - बारी बारी से एक ही चीज परोसते थे.
और, रही बात एंटीना की, तो रतलाम में रहते हुए इंदौर का एफएम स्टेशन सुनने के लिए (रतलाम में कोई भी एफएम रेडियो स्टेशन नहीं है) दो मंजिला विशेष एंटीना तैयार किया था. अब ये बात दीगर है कि भोपाल आने के बाद यहां कोई आधा दर्जन एफएम चैनल होने के बाद भी उन्हें सुनने को मन नहीं करता - फ़ालतू की बकवास और बारंबार बजते वही प्रोमो गाने!
ट्रांजिस्टर की बात आपने छेड़ी है तो बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं... और भी ढेरों बातें... :)
जी हां, रवि जी, बिल्कुल सही यह टू-इन-वन ही है, लेकिन हम जैसों को जैसे हर ऐसी चीज़ को रेडियो, ट्रांसिस्टर ही कहने की आदत सी पड़ चुकी है।
मेरे पास भी कई रेडियो हैं. एक तो फ़िलिप्स का सेल्फजनरेटर युक्त लिया था - आधे घंटे हाथ से उसमें चाभी भरो, और कोई चार-पांच घंटे रेडियो सुनो.
रेडियो की बात निकली है तो याद आया - मैंने सब्सक्राइबर युक्त चालीस चैनल का एक सेटेलाइट रेडियो रतलाम में रहते हुए बाहर से मंगवाया था, पर महीने भर में बोर हो गया क्योंकि उसमें हिंदी कंटेंट ही नहीं था ज्यादा - बारी बारी से एक ही चीज परोसते थे.
रवि जी की इस टिप्पणी से एक बात तो बहुत रोचक पता चली कि चाबी वाला रेडियो भी है। और दूसरा यह कि विदेश से महंगा सेटेलाइट रेडियो भी यहां नहीं चलता। बहुत बहुत धन्यवाद, रवि जी, जानकारी शेयर करने के लिए।
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