Monday, December 31, 2007

जब केबल टी.वी ने भी रेडियो की दुनिया में घुस-पैठ कर डाली...

....लगभग 1985-86 के आस-पास तक तो हम लोग रेडियो के साथ साथ दूरदर्शन टीवी का आनंद लूटने में लगे हुए थे। दूरदर्शन के प्रोग्राम दिन में कुछ घंटों तक ही प्रसारित हुया करते थे -- बाकी समय तो अपना रेडियो के मनोरंजक प्रोग्रामों के नाम ही लगा होता था। अब तक मैंने भी 3-4 छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर इक्टठे कर रखे थे। एक हास्पीटल में फुर्सत के लम्हों में सुनने के लिए रखा हुया था, एक घर के लिए ....मुझे, दोस्तो, अभी ध्यान आ रहा है कि यह वह समय था जब मैं नहाते हुए भी एक ट्रांजिस्टर गुसलखाने( जी हां, तब गुसलखाने ही हुया करते थे, ये बाथ-रूम तो अब हम ने बनाने शुरू किए हैं...) की शैल्फ पर रखना न भूलता था- आखिर उस दौरान भी मैं अपने चहेते विविध भारती की फिल्मी गीतों की बौछार से कैसे दूर रह सकता था !! उन दिनों यह भी बात होने लगीं कि अब वीसीपी या वीसीआर खरीदने या किराये पर लाने का भी कोई झंझट नहीं, अब तो भई केबल आ गया है, सारा दिन हिंदी फिल्मी व हिंदी फिल्मी गीतों पर आधारित कार्यक्रम छकाया करेगा --और वह भी सिर्फ 120रूपये महीने की दर से। खैर, हम लोगों को कभी यह केबल -वेबल लगवाने की बात जंची नहीं--बस यूं ही---शायद इस का कारण होगा कि हम लोग रेडियो एवं दूरदर्शन के कार्यक्रमों में बुरी तरह से ( या कहूं, अच्छी तरह से) डूबे रहते थे। तो दोस्तो, मैं कहना यह चाह रहा हूं कि इस केबल टीवी के आने से भी रेडियो की प्यारी सी दुनिया में कोई खास असर नहीं पड़ा। लोग, वही हिंदी फिल्में बार-बार देख कर ऊबने से लगे थे----वही गीत सुन सुन कर सिर फटा करता था।
दोस्तो, 1991 में मेरी सर्विस दिल्ली के सरकारी हस्पताल में लग गई। अभी कुछ दिन ही इस नौकरी को लगे हुए थे--- मुझे अभी पहली तनख्वाह भी न मिली थी। दोस्तो, मैं और मेरे बीवी चांदनी चौंक एरिया में टहल रहे थे- उस दिन मेरा जन्म-दिन था, बीवी ने पूछा कि बर्थ-डे प्रेसेंट क्या लोगे ?----मेरा कुछ खास जवाब न आने पर उस ने कहा कि आप को रेडियो सुनने का इतना शौक है, चलो एक रेडियो ही ले लेते हैं। सो, दोस्तो, मैं और मेरी पत्नी उस दिन सामने ही एक रेडियो की दुकान के अंदर गए--- हमें एक 600रूपये के करीब का ट्रांजिस्टर पसंद आया ....फिलिप्स का था....उस की यह खासियत कि चाहे तो सेल से चलाओ, चाहो तो बिजली से। दोस्तो, आप से क्या छिपाना, उन दिनों तो सैल भी बार-बार खरीदने चुभते थे। खैर, उस रेडियो पर मेरा दिल आ ही गया--- लेकिन मेरी जेब में केवल अढ़ाई-तीन सौ रूपये ही थे, मैं कुछ आना-कानी करने लगा था, लेकिन मिसिज ने जैसे मुझे उस दिन वह सैट दिलाने की ठान रखी थी, तो,दोस्तो, हम दोनों ने मिल कर उसे खरीद ही लिया। बस, उस दिन से उसे बिजली के साथ चलाने लगा और मेरी दुनिया में एक अनूठा संसार जुड़ गया --- यह सैट खरीदने से पहले तो सैल ज्यादा फुंकने की टेंशन होती थी, लेकिन अब तो बिना किसी रोक-टोक के दिन में जितना समय चाहो, आल इंडिया रेडियो के प्रोग्राम सुनने को मिलते थे। दोस्तो, मैं तो भई आज तक इस सैट के बारे में बड़ा इमोशनल हूं--- अब बीवी को भी अकसर कहता हूं कि हम दोनों द्वारा आज तक जितनी भी परचेजि़ग की गई है, वह रेडियो वाली खरीद मेरे लिए सब से ज्यादा मायने रखती है और सारी उम्र रखेगी। उस दिन मुझे उस रेडियो की ही जरूरत थी। एक तरह से देखा जाए तो उस रेडियो सैट की खरीद की याद हम दोनों के बीच एक भावनात्मक पुल का काम करती है। प्लीज़, आप कृपया इतने सीरियस न हो जाइए, लेकिन मुझे पता है कि इस पर आप का भी वश कहां है, ये लेखक लोग होते ही कुछ भावुक किस्म के हैं !!!
कुछ महीनों बाद, दोस्तो, हम दोनों की पोस्टिंग बम्बई हो गई ( मैं क्या करूं, मुझे तो दोस्तो अभी भी उसे पुराने नाम से ही पुकारने में आनंद मिलता है!!) सो , उस सैट के माध्यम से विविध भारती के प्रोग्रामों का भरपूर मजा लूटना जारी रहा। अभी बंबई गए हुए 2-3 महीने ही हुए थे कि वहां पर फिलिप्स का स्टीरियो (टू-इन वन) खरीद लिया और इस की स्टीरीयोफोनिक आवाज़ होने की वजह से उस का आनंद ज्यादा आने लगा। सो, अब उस पुराने वाले सैट के साथ साथ इस स्टीरिरयो पर भी रेडियो को सुनने का मजा आने लगा। पता नहीं, कितनी बार, शायद सैंकड़ो बार उन दिनों उस बेटा फिल्म की कैसेट के गीत सुन कर भी मैं कभी बोर नहीं हुया----!! लेकिन दोस्तो अब इन पुरानी यादों के झरोखों पर खड़ा-खड़ा ऊब सा गया हूं--- सो, फिर मिलते हैं।
Wish all of you and yours a Wonderful 2008------------may god fill your life with health and happiness during this year !!!!!!!

2 comments:

इरफ़ान said...

नए साल में आप और भी अधिक ऊर्जा और कल्पनाशीलता के साथ ब्लॉगलेखन में जुटें, शुभकामनाएँ.
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sanjay patel said...

अच्छे भले सुहाने दिन थे और वैसे ही लोग अब सब सिंथेटिक हो गया....रिश्ते भी.फ़िर भी तमाम चीज़ों में बनावट के बावजूद ब्लाँग की दुनिया ने निश्चित ही एक नया द्वार खोला है रचनात्मकता का . इरफ़ान भाई जैसे लोगों की उर्जा इस नेक काम में लगी है ...हम ही अनुसरण करते रहें तो क्या बुराई है.