Friday, February 29, 2008
वैसे गिफ्ट का यह आइडिया कैसा है ?
हां, मैं बेहद इमानदारी से कह रहा हूं कि इस एफएम रेडियो के डिब्बे के बारे में मुझे इस से पहले कुछ भी पता न था. मैं सोचता था पता नहीं कितना ज्यादा कम्पलिकेटेड मामला है इस को मेनटेन करना । सो, अगले दिन ही मैं भी उठा लाया एक वैसा ही एफएम रेडियो.......चार पांच तो शुरू शुरू में बांट भी डाले....घर में जो भी आता , उस को सारा उस गंगाधर की बातें दोहरा देता और साथ में वह डिब्बा थमा देता। हमारे यहां काम करने वाली को भी वह बहुत अच्छा लगता था----एक दो बार उस ने श्रीमति से इतना पूछा कि यह कितने का आता है , तो दूसरे दिन उस को भी ला कर दे दिया। जब मेरी मासी को मैंने वह गंगाधर से प्रेरणा लेने वाली बात बताई तो उऩ्होंने ठहाके लगात हुये कह दियाय........प्रवीण, तू तो देखना कभी भी नहीं बदलेगा....मैंने कहा था ...कि आखिर ज़रूरत ही क्या है।
मैं यह ही नहीं कहता कि मैं तो एफएम रेडियो का शैल्फ-स्टाइलड ब्रैंड अम्बैसेडर हूं क्योंकि जब लोग किसी डाक्टर के यहां---घर में और हस्पताल में --एफ एम वाला डिब्बा बजता देखते हैं ना तो वे भी इसे सुनने के लिये प्रेरित होते हैं...........और वैसा देखा जाये तो कितना सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधन है यह मनोरंजन का .................तो , सोचता हूं कि ऐसा नहीं हो सकता कि आने वाले समय में लोग विवाह शादियों में भाग लेने के बाद आये रिश्तेदारों को बर्फी के डिब्बे की बजाए .........एक एक एफएम का डिब्बा थमा दिया करेंगे....बर्फी से तो मोटापा ही बढ़ेगा और यह एफएम पर आने वाले रोज़ाना डाक्टरों के प्रवचन सुन कर कुछ तो असर होगा ही । और एक बात भी तो है कि अगर मेरा यह सपना (गिफ्ट में यह डिब्बा देने वाला) पूरा हो गया तो भई अपने ब्लागर-बंधुओं ...यूनुस जी , कमल शर्मा जी (मैं समझता हूं कि वे भी रेडियो की दुनिया के साथ जुड़े हुये हैं) की रेटिंग तो आसमान छूने लगेगी।
और हम सब को बहुत अच्छा लगेगा।
Monday, February 4, 2008
और मैं बन गया एफएम रेडियो का ब्रांड-अम्बैसेडर.....
ज़िंदगी एक टू-इन-वन के सहारे विविध भारती के प्रोग्राम सुन कर बढ़िया चल रही थी कि लगभग डेढ़ दशक पहले , जहां तक मुझे याद ही कहीं जून 1993 के आसपास मुझे पता चला कि बाज़ार में एक एफएम रेडियो सैट आ गया है ---कुछ ज़्यादा तो इस के बारे में पता था नहीं सिवाए इस बात के कि इस पर सब बहुत ही क्लियर सुनता है यानि कि साऊंड क्वालिटि बेहतरीन होती है। रिसेप्शन बेहद उत्तम किस्म का होता है।
बस फिर क्या था, रेडियो दीवाने इस को खरीदने में कहां पीछे रहने वाले थे। सो, किसी तरह एक अदद एफएम रेडियो को ढूंढता हुया मैं बम्बई की ग्रांट रोड (लेमिंगटन रोड) पर पहुंच गया। दो-तीन दुकानों से पूछने के बाद आखिर एक दुकान में यह मिल गया--- उसी दिन शायद तेरह-सौ रूपये का फिलिप्स का एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद लाया। वैसे वर्ल्ड-रिसीवर से मुझे कुछ खास लेना देना तो था नहीं--- मुझे तो बस दुकानदार का इतना कहना ही काफी था कि इस में एफएम रेडियो भी कैच होगा और अच्छी क्वालिटि की आवाज़ सुनने को मिलेगी।
दुकानदार ने तीन बड़े सैल डाल कर एफएम की क्वालिटि चैक भी करवा दी थी....क्योंकि उस समय शाम थी, और एफएम प्रसारण दिन में सुबह, दोपहर एवं शाम केवल निर्धारित समय सारणी के अनुसार ही होता था। यकीन मानिए, मैंने भी उस वर्ल्ड-रिसीवर पर विविध भारती एवं एफएम के इलावा कुछ नहीं सुना।
मुझे अभी भी अच्छी तरह से याद है कि उस इलैक्ट्रोनिक्स की दुकान वाले को मुझे एफएम की अच्छी क्वालिटि का नमूना दिखाने के लिए दुकान से बाहर फुटपाथ पर आना पड़ा था और साथ में वह यह भी कह रहा था कि यहां पर ट्रैफिक की वजह से थोड़ी सी अभी डिस्टर्बैंस है, आप की बिल्डिंग से तो सब कुछ एकदम क्रिस्टिल क्लीयर ही सुनेगा। एक बात इस की और भी तो बहुत विशेष थी कि यह बिजली के साथ सैलों से भी चलने वाला सैट था। वैसे, इसे बिजली से चलाने के लिए एक अलग से अडैप्टर भी लगभग 150रूपये में खरीदना पड़ा था।
इस वर्ल्ड रिसीवर पर अब मुझे एफएम के कार्यक्रमों के समेत सभी प्रोग्राम सुनने बहुत रास आ रहे थे। इसे मैंने अपनी ड्यूटी पर रख छोड़ा था और अकसर मेरे वेटिंग-रूम में यह बजता रहता था। जहां तक मुझे याद है इस पर शुरू शुरू में times..fm के कार्यक्रम जो दोपहर एक बजे शुरू हो जाते थे( वो बहुत ही बढ़िया सी सिग्नेचर ट्यून के साथ) और फिर शायद दो-अढ़ाई घंटे तक चलते थे, मुझे बेहद पसंद थे। इस में एक प्रोग्राम होता था ..नॉको के सौजन्य से, जिस में एड्स कंट्रोल के बारे में जनता को जानकारी उपलब्ध करवाई जाती थी और उस प्रोग्राम में बहुत बढिया किस्म के फिल्मी गीत भी सुनाए जाते थे। कुछ दिन पहले ही मैं राष्ट्रीय एड्स कंट्रोल संगठन की अध्यक्षा को एक पत्र लिख रहा था तो मैंने इस देश में इस रेडियो प्रोग्राम की भूमिका का बहुत अच्छे से उल्लेख किया था।
मुझे तो बस इस एफएम सुनने का चस्का कुछ इस कदर लगा कि कुछ दिनों बाद ही हमें लोनावला जाना था, मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं एफएम सुनने की खातिर उस शाम को ए.सी कंपार्टमैंट से बाहर ही खड़ा रहा था जिस की वजह से मैं अपने उस वर्ल्ड-रिसीवर पर एफएम के सुरीले प्रोग्राम का मज़ा ले रहा था। लेकिन यह क्या, जैसे ही गाड़ी कल्याण से थोड़ा आगे चली, उस की रिसैप्शन में गड़बड़ी शुरू और देखते ही देखते चंद मिनटों में मेरे कईं बार उसे उल्टा-सीधा करने के बावजूद कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। हां, हां, तब याद आया कि अभी एफएम कार्यक्रमों की रेंज बम्बई से 50-60 किलोमीटर तक ही है। सो, मन ममोस कर एसी कंपार्टमैंट के अंदर आना ही पड़ा। मैं भी कितना अनाड़ी था कि एक वर्ल्ड-रिसीवर खरीद कर यही समझ बैठा कि शायद कोई सैटेलाइट ही खरीद लिया है....!!
इस वर्ल्ड-रिसीवर पर तो मैं इस कद्र फिदा था कि जब कभी दिल्ली की तरफ जाने का प्रोग्राम बनता तो भी मैं इसे अपने साथ ही रखता...क्योंकि इस की रेंज दिल्ली से 60-70 किलोमीटर तक सुन रखी थी, इसलिए घर बैठ कर भी इस के प्रोग्राम सुनने का आनंद आता था। मुझे याद है कि कईं बार बिजली का साथ भी नहीं होता था, लेकिन इस ने कभी धोखा नहीं दिया......अब इतनी अच्छी सी क्लियर आवाज़ में जब दोपहर को 2-3 घंटे बढ़िया गाने बज रहे होते थे तो कज़िन वगैरह जरूर इस के बारे में पूछते थे.......आप को यह नहीं लगता कि एक तरह से मैं एफएम का एक सैल्फ-स्टाइल्ड ब्रांड-अम्बैसेडर ही बन चुका था। और हां, एक बात यह तो बतानी भूल ही गया कि उस वर्ल्ड-रिसीवर के साथ एक बड़ा सा एंटीना भी था, जिसे अकसर मुझे किसी लोहे की वस्तु से टच करवा कर रखना होता था, ताकि रिसैप्शन एकदम परफैक्ट हो।
इस के बाद की एफएम की यादों की बारात में फिर कभी शामिल होते हैं।